परम पूज्य स्वामी श्री वासुदेवानंद सरस्वती (टेंबे) स्वामी दत्त संप्रदाय के अत्यंत सिद्ध संत, आज स्वामीजी की 125 वीं पुण्यतिथि है।

परम पूज्य स्वामी श्री वासुदेवानंद सरस्वती (टेंबे) स्वामी दत्त संप्रदाय के अत्यंत सिद्ध संत, आज स्वामीजी की 125 वीं पुण्यतिथि है।

परम पूज्य स्वामी श्री वासुदेवानंद सरस्वती (टेंबे) स्वामी दत्त संप्रदाय के अत्यंत सिद्ध संत, आज स्वामीजी की 125 वीं पुण्यतिथि है। 

परम पूज्य स्वामी श्री वासुदेवानंद सरस्वती (टेंबे) स्वामी दत्त संप्रदाय के अत्यंत सिद्ध संतो में एक है। 

आपने अपना पूरा जीवन भगवान दत्तात्रेय की उपासना एवं सम्प्रदाय के प्रचार प्रसार में समर्पित किया। आद्य शंकराचार्य की संन्यास परंपरा के दंडी स्वामी परंपरा का अत्यंत अनुशासन से पालन करते हुए अपने जगद्गुरु की तरह विपुल साहित्य रचा। 

मनुष्य जीवन में आने वाले विघ्नों को दूर करने, कष्टों का निवारण करने , सात्विक इच्छाओं को पूरा करने के लिए अपने भक्तों को अनेक दत्त स्तोत्र की रचना कर साधना हेतु उपलब्ध करवाए। 

आपका जन्म कोकण क्षेत्र के सावंतवाड़ी संस्थान के माणगांव ग्राम में गणेशभट टेंबे और सौ. रमाबाई के घर शके 1776, श्रावण कृष्ण पंचमी, रविवार दिनांक 13 अगस्त 1854 को हुआ।

आठ वर्ष की आयु में वासुदेव का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। इसके बाद वे त्रिकाल स्नान-संध्या, अग्निहोत्र, नित्य गुरुचरित्र का वाचन, भिक्षा माँगकर वैश्वदेव-नैवेद्य कर भोजन आदि नित्यकर्म करने लगे। साथ ही उन्होंने वेदाध्ययन, यज्ञ, संस्कृत, ज्योतिषशास्त्र तथा अष्टांग योग का अभ्यास भी आरंभ किया।

व्रत और उपवास के कारण उनका शरीर और मन अत्यंत शुद्ध और निर्मल हो गया था। इसके फलस्वरूप उन्हें योग में सहज प्रवेश प्राप्त हुआ और उन्हें सर्वज्ञता प्राप्त हुई। वासुदेवशास्त्री को माणगांव में विद्वान और शास्त्रज्ञ के रूप में पहचाना जाने लगा।

रांगणागढ़ के हवालेदार बाबाजी पंत गोडे की ‘बयो’ नामक कन्या से वासुदेवशास्त्री का विवाह हुआ। विवाह के बाद उन्होंने पंचयज्ञ, नित्य पंचायतन पूजा और स्मार्त अग्निहोत्र आदि धार्मिक कार्य आरंभ किए। इस समय उन्होंने गायत्री मंत्र का पुरश्चरण किया। एक बार स्वप्न में प्राप्त दृष्टांत के आधार पर वे वाडी नामक स्थान पर पहुँचे, जहाँ ब्रह्मज्ञानी संन्यासी श्री गोविंदस्वामी की कृपा से उन्हें दत्त संप्रदाय की दीक्षा और गुरुमंत्र प्राप्त हुआ।

इसके पश्चात ई. स. 1883 वैशाख शुद्ध पंचमी के दिन कागल से लाई गई दत्तमूर्ति की उन्होंने माणगांव में स्थापना की। वहाँ दत्तगुरु ने सात वर्षों तक विविध लीलाएँ कीं। इसके पश्चात दत्तगुरु के आदेश पर वासुदेवशास्त्री अपनी पत्नी के साथ नरसोबावाड़ी गए। फिर ‘उत्तर की ओर जाओ’ इस आदेश के अनुसार कोल्हापुर, औदुंबर, पंढरपुर, बार्शी जैसे तीर्थों से होते हुए वे गोदावरी तट के गंगाखेड़ (जिला परभणी) पहुँचे। वहाँ शके 1813 वैशाख कृष्ण 14, शुक्रवार को दोपहर में पत्नी अन्नपूर्णा बाई ने उनके चरणों पर सिर रखकर शरीर त्याग किया। इसके 14वें दिन वासुदेवशास्त्री ने संन्यास लिया।

उन्होंने उज्जैन में श्री नारायणानंद सरस्वती स्वामी से दंड ग्रहण किया। उज्जैन के प्रसिद्ध मां हरसिद्धि देवी मंदिर के पास आज भी वह स्थान भगवान दत्त मंदिर के रूप में है।

उन्होंने कर्म, भक्ति, योग और ज्ञान इन सभी मार्गों का स्वयं आचरण कर सिद्धिपद प्राप्त किया और अनेक मुमुक्षु भक्तों को मार्गदर्शन दिया। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन लोककल्याण और दत्तभक्ति के प्रचार में व्यतीत किया। दत्तप्रभु के आदेश से उन्होंने कठोर नैष्ठिक संन्यासी जीवन अपनाया। वे सम्पूर्ण जीवन महाराष्ट्र से हिमालय तक नंगे पैर प्रवास करते रहे और वैदिक धर्म तथा श्रीदत्त संप्रदाय का प्रचार करते रहे।

संन्यास आश्रम का आदर्श, मूर्तिमान वैराग्य, एकनिष्ठ दत्तभक्ति – इन विशेषताओं से युक्त स्वामीजी श्रेष्ठ वैद्य, मंत्रसिद्ध, यंत्र-तंत्र के ज्ञाता, उत्कृष्ट ज्योतिषी, मराठी और संस्कृत के आध्यात्मिक साहित्य के प्रतिभाशाली कवि, वक्ता, सिद्ध हठयोगी और महान दत्तभक्त थे।

उन्होंने ‘श्रीदत्तपुराण’ जैसे अद्वितीय ग्रंथ की रचना की, जिससे अनादि दत्त संप्रदाय को एक निश्चित संहिता और स्वरूप मिला, जिसमें वेदपाद स्तुति जैसी विलक्षण रचना समाविष्ट है। दत्तगुरु की आज्ञा से रचित ‘श्री गुरुचरित्र’ जैसा दिव्य ग्रंथ केवल मराठी भाषा के कारण अखिल भारतीय भक्तों के लिए सीमित था, इसलिए उन्होंने इसका संस्कृत समश्लोकी संहिता और द्विसहस्त्री संहिता के रूप में संक्षेप में संस्करण उपलब्ध करवाया । 

 उन्होंने ‘सप्तशती गुरुचरित्र सार’ नामक प्राकृत संक्षेप गुरुचरित्र की रचना की । इसके अलावा उन्होंने ‘दकारादि सहस्रनाम’, ‘सत्यदत्तव्रत’ जैसे अनेक ग्रंथों की रचना की और ‘पंचपाक्षिक’ नाम से अपनी एक विशेष ज्योतिष पद्धति निर्मित की।

अनेक देवताओं, सत्पुरुषों, नदियों आदि पर उन्होंने विपुल स्तोत्र और अभंग रचनाएँ कीं। उनकी ‘करुणात्रिपदी’ और अन्य भक्तिरचनाएँ आज भी महाराष्ट्र के घर-घर में गाई जाती हैं।

इसके अतिरिक्त उन्होंने नृसिंहवाड़ी जैसे जागृत दत्तस्थानों पर उपासना पद्धतियाँ व्यवस्थित कीं। साथ ही उन्होंने पीठापुर (श्रीपाद वल्लभ का जन्मस्थान), कुरवपूर (साधनास्थान), कारंजा (गुरु नृसिंह सरस्वती का जन्मस्थान) – इन स्थलों की दैवीय माध्यम से खोज कर दत्त संप्रदाय के अनुयायियों पर शाश्वत उपकार किया। स्वामी महाराज के कुल 23 चातुर्मास विभिन्न स्थानों पर संपन्न हुए।

दत्तावतारी प. पू. श्री वासुदेवानंद सरस्वती (टेंबे) स्वामी महाराज ने 60 वर्ष की आयु में मंगलवार, आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा, शके 1836, तिथि 24 जून 1914 को गुजरात राज्य के नर्मदा जिले के श्रीक्षेत्र गरुडेश्वर में नर्मदा किनारे समाधि ली।

आज स्वामीजी की 125 वीं पुण्यतिथि है। 

 ।।श्रीपाद श्रीवल्लभ नरहरी दत्तात्रेया डिगम्बरा वासुदेवानंद सरस्वती सद्गुरुनाथा कृपा करा।।