पुणे पुलिस की ओर से कथित ‘शहरी नक्सलियों की गिरफ्तारी के बाद देश का ध्यान एक बार फिर भारत के सबसे हिंसक आंदोलन यानी माओवाद की तरफ गया है। माओवाद को भारत में नक्सलबाड़ी गांव के नाम पर नक्सलवाद के नाम से भी जाना जाता है। पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव में ही सबसे पहले माओवादियों ने हिंसक आंदोलन की शुरूआत की थी। अगर यह कहा जाए तो शायद लोग चकित होंगे कि भारत में हिंसक हमलों में होने वाली मौतों में सबसे अधिक मौतों का कारण नक्सली आतंकवाद है। इसमें चकित होने की कोई बात नहीं, क्योंकि यह एक तथ्य है कि भारत में उग्रवाद से होने वाली सबसे अधिक मौतों का कारण जिहादी उग्रवाद नहीं, बल्कि वामपंथी उग्रवाद है। इसी कारण नक्सलवाद आतंकवाद का पर्याय बन गया है। अमेरिका के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार सीरिया और इराक में कहर बरपाने वाले इस्लामिक स्टेट और अफगानिस्तान के लिए नासूर बने तालिबान के बाद भारत का नक्सली संगठन विश्व का तीसरा सबसे हिंसक आतंकी संगठन है।
नक्सलवादी आखिर चाहते क्या हैं? इस प्रश्न का संक्षिप्त उत्तर है- दो साल पहले जेएनयू में लगा कुख्यात नारा ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे। जाहिर है कि इसके बाद यह सवाल उठेगा कि वे ऐसा क्यों चाहते हैं तो जवाब यह है कि नक्सली भारतीय गणतंत्र और इसके ‘बुर्जुआ संविधान को नष्ट कर माओवादी चीन के मॉडल पर कम्युनिस्ट राज्य की स्थापना करना चाहते हैं। हमें इससे परिचित होना चाहिए कि नक्सली 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय ‘चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन है का नारा देने वालों की ही जमात हैं। चूंकि उनकी नजर में भारत में कम्युनिस्ट राज्य की स्थापना में सबसे बड़ी बाधाएकीकृत भारतीय राज्य है, इसलिए वे सबसे पहले उसे ही छिन्न्-भिन्न् करना चाहते हैं। दशकों के सशस्त्र संघर्ष और आतंक के बाद नक्सली इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि एकीकृत भारत को परास्त करना असंभव है। वे इस निष्कर्ष पर इसलिए पहुंच गए हैं, क्योंकि उन्हें यह दिख रहा है कि भारतीय सेना के उनके खिलाफ उतरने के पहले ही उनकी हालत पस्त हो रही है। अब वे भारत के विघटन की फिराक में हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि नेपाल की तरह छोटे-छोटे राज्यों पर कब्जा करना आसान होगा। नक्सलवादी और वामपंथी सैद्धांतिक तौर पर भारत को एक कृत्रिम राष्ट्र मानते हैं। उनकी यह भी समझ है कि भारत एक दमनकारी साम्राज्यवादी संरचना है जिसने उपमहाद्वीप की विभिन्न् राष्ट्रीयताओं पर कब्जा कर रखा है। उनके अनुसार भारत का अस्तित्व ही समस्या की जड़ है और यहां की जनता को गरीबी, भुखमरी और अन्याय से आजादी भारत को राष्ट्र और राज्य के रूप में नष्ट किए बिना नहीं मिल सकती।
दरअसल यही मौलिक वामपंथी लाइन है और इसी कारण वामपंथियों ने आजादी के पहले न केवल पाकिस्तान बनाए जाने का पुरजोर समर्थन किया था, बल्कि भारत को करीब 30 और हिस्सों में बाटने की वकालत भी की थी। आज भी वामपंथी किस्म-किस्म के अलगाववादी संगठनों को अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर समर्थन देते हैं और उनकी मांगों को बल प्रदान करते हैं। यह काम सार्वजनिक जीवन में सक्रिय उनका वह कैडर करता है जो अकादमिक और साहित्यिक जगत के साथ-साथ पत्रकारिता, गैरसरकारी संगठनों और यहां तक कि कॉर्पोरेट जगत में भी मौजूद है। यही कैडर शहरी नक्सली है। मोटे तौर पर इनके मुख्य काम हैं अपने हथियारबंद साथियों को पैसा एवं संदेश पहुंचाना, शहरों में उनके लिए सुरक्षित ठिकाने तैयार करना और जरूरत पड़ने पर गिरफ्तार नक्सलियों को मानवाधिकार व कानून की दुहाई देकर बचाना। इसके अलावा शहरी नक्सली माओवादी विचारधारा और एजेंडे का प्रचार-प्रसार भी करते हैं। इसी क्रम में वे मीडिया और शैक्षिक संस्थानों के जरिए भारतीय शासन व्यवस्था के खिलाफ माहौल भी बनाते हैं।
2009 में कांग्रेसनीत तत्कालीन संप्रग सरकार द्वारा माओवादियों के खिलाफ शुरू किए गए ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट ने जब उन्हें भारी क्षति पहुंचाई तो उन्होंने अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए शहरी इलाकों में अपने विस्तार पर बल देना शुरू किया। इसी के बाद ‘शहरी नक्सलियों की गतिविधियों में तेजी आई। उन्होंने शहरी इलाकों में अपनी गुपचुप सक्रियता बढ़ाने के साथ ही देश में चल रहे विभिन्न् अलगाववादी व जिहादी संगठनों से तालमेल बनाना शुरू किया। पुणे पुलिस की ओर से गिरफ्तार पांच लोगों में शामिल वरवर राव का कहना भी है कि हम सबका दुश्मन एक ही है- दिल्ली।
माओवादियों की समझ से दिल्ली को कमजोर करने का सबसे आसान तरीका है अलगाववादी ताकतों को मजबूत करना। वे शहरों में संघर्ष और टकराव की स्थिति पैदा करने की फिराक में रहते हैं, ताकि भारतीय राज्य व्यवस्था पंगु हो जाए। अलग-अलग चल रहे लोकतांत्रिक आंदोलनों जैसे दलितों, मजदूरों और किसानों के आंदोलन में घुसपैठ करना और उन्हें हिंसक रास्ते पर मोड़ना भी माओवादी रणनीति का अहम हिस्सा है। माओवादी यह मानते हैं कि शहर भारतीय-राज्य और पूंजीपतियों की शक्ति के केंद्र हैं और चूंकि शहरों में ही प्रशासन, न्यायपालिका, विधायिका, सेना आदि की प्रभावी उपस्थिति है, इसलिए वहां अराजकता पैदा करके राज्य के संसाधनों और शासकों का ध्यान शहरों की सुरक्षा में ही फंसा देना चाहिए। उनके मुताबिक इससे भारतीय शासन के लिए अलगाववादियों और जिहादी ताकतों से मुकाबला करना मुश्किल हो जाएगा और जब भारत का विघटन यानी ‘टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे तथा दिल्ली की सत्ता एवं शक्ति सिकुड़ जाएगी तो अनिर्णय-अराजकता की हालत में माओवादी अपनी गुरिल्ला सेना के जरिए विभिन्न् हिस्सों पर कब्जा करके कम्युनिस्ट राज्य की स्थापना कर लेंगे।
यह भी समझना आवश्यक है कि भूमिगत नक्सलियों और उनके शहरी कैडर यानी शहरी नक्सलियों का दुश्मन मोदी, भाजपा या संघ नहीं, बल्कि भारत है। दिल्ली में बैठने वाली हर सरकार उनके लिए फासीवादी और जनविरोधी है। इसी कारण प्रधानमंत्री रहते समय मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को आतंरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बताया था। तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने भी बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता और एनजीओ का चोंगा पहनेे शहरी नक्सलियों को भूमिगत नक्सलियों का सुरक्षा कवच बताया था, लेकिन आज कांग्रेस उन संदिग्ध नक्सलियों के समर्थन में खड़े होना पंसद कर रही है, जिनमें से कुछ को खुद उसकी सरकार गिरफ्तार कर चुकी है।
माओवादियों की नजर में कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, द्रमुक, अन्न्ाद्रमुक अथवा केजरीवाल, चंद्रबाबू नायडू या ममता बनर्जी में कोई अंतर नहीं है। वे इन सबको या तो लेबर-कैंप में भेज देंगे या लाइन में खड़ा करके गोलियों से भून देंगे, जैसा कि वे अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों में करते हैं। हिटलर तो सिर्फ 50-60 लाख लोगों को मारकर बदनाम है, लेकिन वामपंथियों ने जिन देशों में सत्ता पाई, वहां करोड़ लोग मार दिए। उन्होंने इन सबके खात्मे को जरूरी भी बताया। यह हैरान करता है कि कुछ लोग ऐसे खतरनाक तत्वों का समर्थन केवल इसलिए कर रहे हैैं, क्योंकि उन्हें हर मसले पर वर्तमान सरकार का विरोध करना है। इन लोगों ने मोदी विरोध और देश विरोध का अंतर खत्म कर दिया है। उम्मीद है कि सरकार में रहे और नक्सलियों के इरादों से परिचित कांग्रेस सरीखे दल अंतत: विवेक से काम लेंगे।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक तथा स्तंभकार हैं)
सौजन्य से नईदुनिया