कार्यकर्ता को शून्य करता वंशवाद का बढ़ावा – शिशिर बडकुल

विश्व की महान और प्राचीनतम विरासत धारण किए हमारे देश में पूर्वजों ने कर्म के आधार पर समाज का वर्गीकरण किया । जहां तय अनुसार क्षत्रियों को समाज की सुरक्षा की जिम्मेदारी मिली , तो स्वभाविक है कि पूरे तंत्र को चलाने के लिए उन्होंने राज किया । जिसमे राजा सर्वोपरी होता था, फिर उसके सिपहसलार फिर सेना फिर प्रजा । समय बदलता गया , भारत ब्रिटिश का गुलाम हुआ शहादत भरे इतिहास में हमे 1947 में आजादी मिली । फिर देश मे संविधान का निर्माण हुआ , और हम विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक ताकत के रूप में उभरे । अनेक राजनैतिक पार्टियां बनी जिन्होंने अपने अपने विचारों के आधार पर समय समय पर अपनी उपस्थिति – अपना बहुमत स्पष्ट किया । पर उम्मीद के हिसाब अब सब उलट फुलट हो चुका है । जनता ने जिसे शिरोधार्य किया उन्होंने स्वयं को ही ताकत समझ लिया । और लोकतांत्रिक प्रबंधन को राजशाही परिवेश में बदलने के लिए अपना भरसक प्रयास जारी रखा और बहुत कुछ बदल भी दिया । आज सभी राजनैतिक पार्टियों के सुप्रीम मुखिया राजा बन चुके हैं और सभी अपने अपने सिपहसलार भी बनाने लगे हैं जो सिर्फ राजा की जय बोलते हैं और राजा के दरबार में महान कवियों की श्रेणी में आने के लिए पर्दे पर बढ़िया सी फ़िल्म चलाकर अपने आदर्श को खुश करते हैं । अब जाहिर सी बात है कि जब पंचायत से लेकर लोकसभा तक दरबार चलेगा तो राजगद्दी का उत्तराधिकारी भी युवराज ही होगा । फोन पर आते मैसेज और अच्छी अच्छी बातों में शुमार एक बात आपने भी सुनी होगी कि ‘देश को जरूरत आज भगत सिंह की है पर शुरुआत किसी और के घर से हो’ । अब जब बात अच्छी है तो अमल भी सब करेंगे तो बस यही तो कारण है कि कार्यकर्ता बने आपके घर से और नेता हमारे घर से , अरे भाई और क्यों ना हो ऐसा आप अच्छे संगठन के आदर्श कार्यकर्ता हैं । आपको अपने मार्गदर्शक की बात अनसुनी करके निपटना थोड़ी है और फिर डर भी तो है कि कहीं आपकी CR खराब ना हो जाए , क्योंकि वैसे भी आज सभी राजनैतिक पार्टियां MNC कंपनियों जैसे चल रही हैं । एक आभामंडल तैयार किया जाता है जनता की आवाज और फलाना भाई साहब , जबकि ऐसा कतई नही होता है हम 21 वी सदी में हैं और ये पीढी थियोरी से अधिक प्रैक्टिकल एग्जाम देने में भरोसा करती है । जो पहले इस्तेमाल करती है फिर विश्वास करती है । हमने पिछले कुछ समय से देश भर में हो रहे है चुनावों के परिणाम से देखा होगा कि परिवर्तन शुरू हो चुका है । परिवर्तन का कारण और कोई नही बल्कि राजनैतिक पार्टियों के तथाकथित कार्यकर्ता ही हैं । हम जब गुब्बारे में हवा भरते हैं और अगर जरूरत से जायदा हवा भरते हैं तो गुब्बारा फट जाता है या हाथ से फिसल कर प्रेसर के साथ हवा छोड़ते हुए उड़ जाता है । अब हवा का दवाब बढ़ गया है तो गुब्बारा सहन कैसे करेगा । शायद यही कारण है कि आज सोशल मीडिया पर और लोगो के बीच जाकर एक साधारण सा कार्यकर्ता वंशवाद के खिलाफ अपनी बात रखता है वो भी राजा और राजा जी की फौज से डरे बिना । नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र में काफी अंतर है जो कि दोनों के नाम से स्पष्ट है और दोनों को अगर एक दूसरे का पूरक बना दिया जाए तो स्थिति नियंत्रण के बाहर हो जाती है । यही कारण है कि लोकतंत्र की व्यस्थित राजनीति में सिर्फ जनता जनार्दन को ऊपर रख उनके सर्वागींण विकास की रूप रेखा तैयार हुई थी और इसी क्रम में सभी राजजनैतिक पार्टियों ने अपनी अपनी विचारधारा के आधार पर अपने कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किया । पर यह प्रशिक्षण सिर्फ आदर्श कार्यकर्ता निर्माण के लिए है जो कि सिर्फ कार्यकर्ताओं के लिए ना कि दरबारी राजा के लिए । कहते हैं कि जो व्यवस्थित और निपुणता पूर्ण ढंग से किसी भी कार्य को करता है वही सच्चा कार्यकर्ता होता है , और एक अनुशासित कार्यकर्ता ही बड़े बड़े से राजनैतिक संगठन का आधार होता है । यह जानना और याद रखना भी अति आवश्यक है कि कोई भी किसी भी संगठन से उसके विचारों से प्रेरीत होकर जुड़ता है और अगर सिर्फ राजा साहब से कोई जुड़ा है तो वो क्षणिक और यथार्थ से परेय होता है । मेरा व्यक्तिगत मानना है कि किसी भी दल को हार जीत की समीक्षा करने से पहले सिर्फ अपने सच्चे कार्यकर्ता को समझना चाहिए । यह वही होता है जो ग्रहस्थ जीवन मे रहते हुए भी अपने घर से पहले अपने दल को प्राथमिकता देता है । तो फिर आवश्यक है कि राजनैतिक दल को यह विचार करना चाहिए कि उस एक आम कार्यकर्ता की भावनाएं आहत ना हों और शायद यह मानवता के नाते भी उचित होगा । अपने निजी हित को देखते हुए अपना उत्तराधिकारी तय करना ना सिर्फ हठ होगी बल्कि राजा साहब के प्रति निष्ठावान एक आम इंसान की नेता जी के लिए गलत धारणा बनेगी । हीन भावना से भरा कोई व्यक्ति सार्थक कार्य कर नही सकता और यही एक कारण होता है कि अथक मेहनत करने वाले साधारण से कार्यकर्ता का कार्य शून्य होता जाता है । बड़ा बारीक सा अंतर होता है जरूरी और मजबूरी में । इन्ही दोनों शब्दों का अपने हिसाब से बढ़िया लीप पोतकर उपयोग करने वाले ही यह तय कर देते हैं कि यही सही है । माना कि तय करने वालों का अनुभव अधिक होगा पर हमेशा निर्णय सही होगा यह तो निश्चित नही है ना । यह कहना शायद अतिशियोक्ति नही होगी कि अपने अनुभव को सबके सुझाव से अधिक मानने वाले कभी अपनी गलती भी नही माना करते हैं । वो भूल जाते हैं कि वरिष्ठ नेतृत्व जैसा नाम भी इसीलिए मिला क्योंकि आपको भी आपके वरिष्ठ ने मौका दिया था और परंपरा का निर्वाहन करना एक आदर्श कार्यकर्ता का कर्तव्य है , आप तो वैसे भी आदर्श कार्यकर्ता हैं तभी आज सबके मार्गदर्शक हैं । अब एक आदर्श कार्यकर्ता के कर्तव्य का निर्वाहन कैसे करना है नेता जी को बताना ऐसे होगा जैसे सूर्य को दीपक दिखाना हो । अभी तो चुनावी समर की शुरुआत हुई है जो लगभग 18 महीने चलेगी तो देखते हैं राजगद्दी की शोभा युवराज बढ़ाएंगे या राजा अपना लोकतांत्रिक राजधर्म निभायेंगे ।