राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : कांग्रेसी अत्याचार बनाम न्यायिक निर्णय – अनिल सौमित्र


कुछ दिन पहले हमने ये बयान सुने पढ़े और देखे है जिनमे कहा गया कि मन्दिर जाने वाले हिन्दू लडकिया छेड़ते हैं , हिन्दू तालिबान , भगवा आतंकवाद , हिन्दू पाकिस्तान , सनातन धर्म कमजोर करना है ,राम मंदिर निर्माण मामले में कोर्ट में अड़ंगे के लिए 2019 के बाद सुनवाई इत्यादि ।

दरअसल ये सब बयान उस राजनीतिक दल के नेताओ के हैं जिसकी स्थापना एक ईसाई अंग्रेज एओ ह्यूम ने की थी इसलिए ये रोम को राम से ऊपर भी मानते हैं , लब्बो लुआब यह है कि वास्तविकता में ये हिन्दू विरोधी हैं ।

इसीलिए संसार की सबसे सहिष्णु कौम हिन्दुओं के विरोध में 3 नवंबर 2015 को इन लोगों ने राष्ट्रपति भवन के सामने एक मार्च निकाला था और तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से मांग की थी कि देश में असहिष्णुता के माहौल पर रोक लगे।

लेकिन अब खुद इतने असहिष्णु हो गए हैं कि मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में अपने घोषणा पत्र में इन्होंने लिखा है कि यदि उसकी सरकार बनी तो (हिन्दू समाज के) सरकारी कर्मचारियों को संघ की शाखा और अन्य सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार नहीं होगा , साथ ही शासकीय भूमि पर संघ की शाखा भी (हिंदूओं को) लगाने नहीं लगने दी जाएगी।

विदित हो कि इन्होंने ये कहा ही नही बल्कि 1993 से 2003 तक के दस वर्षों के शासन में इन्होंने आरएसएस अथवा हिंदुओ पर ये रोक लगाने का पाप किया भी था ।

इस रोक लगाने वाले आदेश को वर्तमान शिवराज सरकार ने 2006 में निरस्त कर ,सरकारी कर्मचारियों को संघ की शाखाओं में जाने की अनुमति प्रदान की थी । जिसे पुनः हटाने का वचन , अपने वचन पत्र में शायद इन्होंने किन्ही हिन्दू विरोधी ईसा-मूसा वादियों को खुश करने और उनके वोट लेने के लिए दिया है ।

वैसे तोे हिन्दू समाज विरोधी इनके कुकृत्यों की लंबी फेहरिस्त है पर आज हम राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ और स्वयंसेवको के विरुद्ध इनके द्वारा किये गए अवैधानिक कार्य और न्यायालय के निर्णय , माननीय न्यायाधीशों की संघ के सम्बंध में टिप्पणियों की जानकारी प्राप्त करेंगे ।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर इन लोगो ने तीन बार प्रतिबंध लगाने की कोशिश की जो निम्नानुसार है –

पहली बार- भारत विभाजन के समय पाकिस्तान से हिंदुओ को सुरक्षित वापिस आने में सहयोग करने पर विद्वेषपूर्वक 1948 में षड्यंत्र पूर्वकमहात्मा गांधी की हत्या का झूठा आरोप लगाकर के कांग्रेस सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया था.न्यायालय से संघ को क्लीन चिट मिलने पर 18 महीने बाद 11 जुलाई, 1949 को संघ से प्रतिबंध हटाने पर इन्हें विवश होना पड़ा ।

दूसरी बार इंदिरा सरकार के भ्रष्टाचार का विरोध करने पर 1975 में आपातकाल के दौरान संघ पर 2 साल तक प्रतिबंध लगा कर स्वयंसेवको पर घोर अत्याचार किये गए ।यह प्रतिबंध 1977 में जनता पार्टी की सरकार आने पर हटा ।

संघ पर तीसरी बार 6 महीने तक प्रतिबंध , कांग्रेस सरकार ने 1992 में बाबरी ढांचे को ढहाने के आरोप में लगाया ।जिसे बाद में जांच के बाद इन्हें हटाना पड़ा।

हिन्दू विरोधी मानसिकता से ग्रसित होकर कांग्रेसी नेताओं के इशारों पर संघ के अनेक स्वयंसेवको को परेशान करने उनके मनोबल को तोड़ने के प्रयास कांग्रेस सरकारों के समय किये गए जिसे न्यायालय ने विफल कर दिया जो निम्नानुसार हैं –
1. इंदौर स्थित मध्य भारत उच्च न्यायालय (1954): ‘कृष्ण लाल बनाम मध्य भारत राज्य ’ मामले में –न्यायाधीश-मा.न्यायमूर्ति गण वी आर नेवलेकर एवं एम एस संवत्सर ने 4 नवम्बर 1955 को निर्णय दिया – “किसी भी अस्थायी सरकारी कर्मचारी को यह कह कर सेवा से हटाया नहीं जा सकता की वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य है।”

2. पटना उच्च न्यायालय (1961): ‘मा. स. गोलवलकर बनाम बिहार राज्य ’ के मामले में न्यायमूर्तिगण जी एम प्रसाद एवं यू इन सिन्हा जी ने 24 नवम्बर 1961 को निर्णय दिया कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समारोह पर दिया गया भाषण भारतीय दंड संहिता की धारा 153क के अधीन अपराध नहीं है।”

3. बम्बई उच्च न्यायालय नागपुर न्यायपीठ (1962): ‘चिंतामणि नुरगांवकर बनाम पोस्ट मास्टर जनरल कें.म. , नागपुर ’के मामले में न्यायमूर्तिगण श्री अभ्यंकर तथा श्री पालेकर जी ने 12 जून 1962 को निर्णय दिया कि “किसी सरकारी कर्मचारी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग लेना ‘विध्वंसक कार्य’ नहीं है तथा उसे इस आधार पर सरकारी सेवा से हटाया नहीं जा सकता। ”

4. उत्तरप्रदेश उच्च न्यायालय (1963): ‘जयकिशन महरोत्रा बनाम महालेखाकार, उत्तर प्रदेश’ के मामले में 11 अप्रेल 1963 को न्यायमूर्ति एस एन द्विवेदी ने निर्णय दिया कि ” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मात्र सदस्य होने के कारण किसी सरकारी कर्मचारी को अनिवार्य रूप से सेवा-निवृत्त नहीं किया जा सकता।”

5. जोधपुर स्थित राजस्थान उच्च न्यायालय (1964): ‘केदारलाल अग्रवाल बनाम राजस्थान राज्य तथा अन्य ’ के मामले में माननीय चीफ जस्टिस डीएस दवे जी और न्यायमूर्ति कर्ण सिंह जी ने 11 नवम्बर 1964 को निर्णय दिया कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा / गतिविधियों में भाग लेने के आधार पर सरकारी कर्मचारी की बर्खास्तगी अवैध है।”

6. दिल्ली स्थित पंजाब उच्च न्यायालय (1965): ‘मनोहर अम्बोकर बनाम भारत संघ तथा अन्य ’ के मामले में माननीय न्यायमूर्ति एच आर खन्ना ने 27 अप्रेल 1965 को निर्णय दिया कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकलाप में भाग लेना न तो ‘विध्वंसक कार्य’ ही कहा जा सकता है और न ही गैर कानूनी है | सरकारी कर्मचारी को इस आधार पर दण्डित नहीं किया जा सकता ।”

7. बेंगलूर स्थित मैसूर उच्च न्यायालय (1966): ‘रंगनाथाचार अग्निहोत्री बनाम मैसूर राज्य तथा अन्य ’के मामले में माननीय न्यायमूर्ति टी के तुकोल एवम एम सदा शिवय्या ने 5 जुलाई 1966 को निर्णय दिया कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य होना न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति से वंचित रखने के लिए वैध कारण नहीं है।” सरकार को अपील का अधिकार भी कोर्ट ने नही दिया ।

8. चंडीगढ़ स्थित पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय (1967): ‘रामफल बनाम पंजाब राज्य तथा अन्य ’ के मामले में माननीय न्यायमूर्तिगण पीडी शर्मा ने 21दिसम्बर 1967 को निर्णय दिया कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर में भाग लेने के आधार पर किसी सरकारी कर्मचारी को बर्खास्त नहीं किया जा सकता ।”

9. जबलपुर स्थित मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय (1973): ‘भारत प्रसाद त्रिपाठी बनाम मध्यप्रदेश सरकार तथा अन्य ’ के मामले में चीफ जस्टिस पीके तारे एवम न्यायमूर्ति एस एम एन ने दिनांक 20 अगस्त 1973 को निर्णय दिया कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी कार्यक्रम में भाग लेने के आधार पर किसी कर्मचारी की सेवा समाप्त नहीं की जा सकती | किसी अन्तरस्थ हेतु से जारी किया गया (इस आशय का) कोई आदेश वैध नहीं ठहराया जा सकता।”

10. उत्तरप्रदेश उच्च न्यायालय (1971) : ‘शिक्षा निदेशक, उत्तर प्रदेश तथा अन्य बनाम रेवत प्रकाश पांडे’ के मामले में 19 जनवरी 1971 को माननीय न्यायमूर्तिगण एस एन द्विवेदी एवं एच सी पी त्रिपाठी जी ने निर्णय दिया कि “सरकारी सेवा के दौरान किसी नागरिक का आरएसएस के किसी कार्यक्रम में ‘संगम का अधिकार’ निलंबित नहीं हो जाता ।”

11. गुजरात उच्च न्यायालय, अहमदाबाद (1970) : ‘डी. बी. गोहल बनाम जिला न्यायाधीश, भावनगर तथा अन्य के मामले में न्यायमूर्तिगण ए डी देसाई तथा एस एच सेठ ने 4 दिसम्बर 1970 को निर्णय दिया कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्बन्ध में यह सिद्ध नहीं है की वह एक राजनैतिक आन्दोलन है, अतः (इस आधार पर) सरकारी कर्मचारी को सेवा से हटाया नहीं जा सकता | ”

12.अर्नाकुलम स्थित केरल उच्च न्यायालय (1981): ‘टी. बी. आनंदन तथा अन्य बनाम केरल राज्य तथा अन्य ’ के मामले में न्यायमूर्ति के के नरेंद्रन ने 6 जुलाई 1981 को निर्णय दिया कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को किसी सरकारी विद्यालय के भवन का उपयोग अपने कार्यक्रमों के लिए करने की विशेष सुविधा से वंचित नहीं किया जा सकता। ”

13. अर्नाकुलम स्थित केरल उच्च न्यायालय (1982) : ‘श्रीमती थाट्टुम्कर बनाम महाप्रबंधक, टेलिकम्युनिकेशंस, केरल मंडल ’ के मामले में माननीय न्यायमूर्ति टी चंद्रशेखर मेनन ने 27 जुलाई 1982 को यह निर्णय दिया कि “किसी व्यक्ति को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य होने के आधार पर सरकारी नियुक्ति से वंचित नहीं किया जा सकता। ”

14. सुप्रीम कोर्ट (1983) : ‘मध्यप्रदेश राज्य बनाम राम शंकर रघुवंशी तथा अन्य ’ के मामले में सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति ओ चिन्नपा रेड्डी और फजल अली ने यह निर्णय दिया कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग लेने के आधार पर किसी कर्मचारी की सेवा समाप्त नहीं की जा सकती। ”

15. अवैध गतिविधियां (निवारण) अधिनियम (1993) : ‘केंद्रीय सरकार बनाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ’ के मामले में ट्रिब्यूनल के चैयरमैन श्री पी के बाहरी ने 4 जून 1993 को आरएसएस की गतिविधियों का सूक्ष्म परीक्षण करने के बाद निर्णय दिया कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को गैर-कानूनी घोषित करने के लिए कारण पर्याप्त नहीं हैं। ”

इस प्रकार उक्तानुसार हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों से स्पष्ट है कि किसी भी सरकारी लोकसेवक को आरएसएस की गतिविधियों में भाग लेने के कारण किसी भी प्रकार से दण्डित नही किया जा सकता और शासकीय परिसरों के उपयोग की विशेष सुविधा यदि किसी अन्य संगठन को है तो आरएसएस को भी वह सुविधा देनी होगी ।

इस प्रकार कांग्रेस के वचनपत्र में सरकारी कर्मचारियों को आरएसएस की गतिविधि में भाग लेने से रोकने या शासकीय भवन की सुविधा से वंचित करने की बात न्यायिक अवमानना की श्रेणी में भी आ सकती है । जिस पर चुनाव आयोग को संज्ञान लेकर कार्यवाही करनी चाहिए ।

मेरा केंद्र सरकार से भी आग्रह है कि गृह मंत्रालय के पत्र क्रमांक 30 नवम्बर 1966 तथा 1980 के अवैध निर्देशो को तत्काल समाप्त किया जावे जिनमे केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों को आरएसएस की गतिविधियों से दूर रहने की सलाह कांग्रेसी सरकारों ने दी थी जो आज भी लागू हैं।

आरएसएस एक अराजनीतिक , सांस्कृतिक ,सेवाभावी , देशभक्त सामाजिक संगठन है । चीन पाकिस्तान युद्ध , प्राकृतिक आपदाओं , दुर्घटना राहत कार्यों और सांस्कृतिक राष्ट्रवादी मूल्यों की रक्षा में सदैव बिना पंथिक भेदभाव के अग्रणी भूमिका पिछले 93 वर्षों से निभाता आया है ।

यही कारण है कि आज आरएसएस के 2 करोड़ से भी ज्यादा प्रशिक्षित सदस्य हैं. संघ परिवार में 80 से ज्यादा समविचारी या आनुषांगिक संगठन हैं.जिनकी सामूहिक सदस्य संख्या करोड़ो में है । दुनिया के करीब 40 देशों में संघ सक्रिय है. मौजूदा समय में संघ की 56 हजार 569 दैनिक शाखाएं लगती हैं. करीब 13 हजार 847 साप्ताहिक मंडली और 9 हजार मासिक शाखाएं भी हैं. संघ में सदस्यों का पंजीकरण नहीं होता. ऐसे में शाखाओं में उपस्थिति के आधार पर अनुमान है कि फिलहाल 5 करोड़ से ज्यादा स्वयंसेवक नियमित रूप से शाखाओं में आते हैं. देश की हर तहसील और करीब 65 हजार गांवों में संघ की शाखाएं लग रही है। जिसमे सभी मत पन्थो रिलीजन के लोग हिन्दू धर्म के लोगो के साथ सादर आमंत्रित हैं । आज राष्ट्रपति , उपराष्ट्रपति , प्रधानमंत्री , 283 सांसद , 1460 विधायक , 18 राज्यो के मुख्यमंत्री , संघ के स्वयंसेवक या संघ परिवार का हिस्सा है जो विराट जनसमर्थन का सुपरिणाम है ।.

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज के टी थॉमस ने कोट्टयम में संघ के एक कार्यक्रम के दौरान कहा, ‘भारतीय संविधान, लोकतंत्र और सेना के बाद आरएसएस ही वह महान संस्था है जिसके कारण देशवासी सुरक्षित हैं।’

आरएसएस के संदर्भ में प्रतिबंध की बात करने वालों को अपने गिरेबान में झांक कर हिन्दू विरोध की भावना से दूर रहकर होकर , बच्चे बेचने जैसे अवैध घृणित कुकर्म करने वाली ईसाई मिशनरियों और जेहादी सिम्मी जैसे संगठनों पर प्रतिबंध की बात करना चाहिए न कि देश भक्त आरएसएस पर ।