संयम के बिना मनुष्य शून्य के समान
विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।
निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।
अर्थ: जो मनुष्य सभी इच्छाओं व कामनाओं को त्याग कर ममता रहित और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है,उसे ही शांति प्राप्त होती है।
यहां भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामना को रखकर मनुष्य को शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए शांति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छाओं को मिटाना होगा। हम जो भी कर्म करते हैं, उसके साथ अपने अपेक्षित परिणाम को साथ में चिपका देते हैं। अपनी पसंद के परिणाम की इच्छा हमें कमजोर कर देती है। वो ना हो तो व्यक्ति का मन और ज्यादा अशांत हो जाता है। मन से ममता अथवा अहंकार आदि भावों को मिटाकर तन्मयता से अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। तभी मनुष्य को शांति प्राप्त होगी।
मन मनुष्य का सबसे अच्छा मित्र है और सबसे घातक शत्रु भी है।इसे वश में करना बहुत ही कठिन कार्य है क्योंकि यह बहुत ही चंचल होता है। जिस ओर यह आकर्षित हो जाये वहां से इसे हटाना बहुत मुश्किल होता है। जिस ओर मन आकर्षित हुआ है यदि उस से आत्मा को शांति मिलती है तो वह कार्य उचित है। पर यदि हमारी आत्मा को वह कार्य उचित नहीं लगता और मन फिर भी उस ओर खींचा जा रहा है तो क्या करें?
उसके लिए जरूरी है संयम।
संयम के बिना मनुष्य भव शून्य के समान है। संयम अपने मन और इंद्रियों की प्रवृत्तियों को रोकने को संयम कहते है ।
मनोवृत्तियों पर, हृदय में उत्पन्न होने वाली कामनाओं पर और इंद्रियों पर अंकुश रखना संयम है । पांचों इंद्रियों व मन को विषय वासनाओं में फंसने से रोकना इंद्रिय संयम कहलाता है। हमारी इंद्रीय और मन एक चंचल घोड़े के समान चपल है । प्रकाश की गति से भी तेज दौड़ती है । इन पर यदि संयम रूपी लगाम का बंधन न हो तो हमें नरक रूपी गड्ढे में गिरने से नहीं रोक सकता । इंद्रियों के अधीन रहने वाला इंद्रियों का दास बनकर इधर उधर भटकता रहता है और सन्मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है । जिस दिन आत्मा में संयम धर्म जागृत हो जाता है तो अपने हृदय की विषय वासनाएं अपने आप शांत हो जाती है । संयमी मनुष्य के हृदय में भोगोपभोग की विभिन्न प्रकार की वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा ही नहीं होती है। बड़े बड़े चक्रवर्ती सम्राटों ने अपनी अपार संपदाओं को छोड़कर अपनी आत्मा में रमण करने की अभिलाषा हेतु संयम को धारण किया था । क्योंकि संयम के बिना आत्म ध्यान में स्थिरता नहीं आती है
मन लालची और स्वार्थी होता है। आत्मा इसे रोकती है ,टोकती भी है फिर भी यह नहीं सुनता।क्या करें?
मन को वश में करने के दो उपाय हैं। एक तो परमात्मा से प्रीती और दूसरा विषयों से वैराग्य।
ये चंचल और अस्थिर मन जिधर जिधर जाए ,वहां से मोड़ कर इसे परमात्मा में लगाएं। विषयों और इच्छाओं के प्रति आकर्षित न हों।क्योंकि विषयों की इच्छा मनुष्य को आकर्षित कर कुमार्ग पर ले जाती हैं।जिन इच्छाओं से आरंभ में सुख और अंत में दुख मिले उनको त्याग दें।दृढ़ निश्चय करके मन और बुद्धि को अपने अधीन करें और आत्मा में लीन हो जाएं।इन उपायों द्वारा मन को निश्छल किया जा सकता है। मन और बुद्धि जब शांत हो जाते हैं तो आत्मा का प्रकाश फैलता है।आत्मा द्वारा ही हमें ज्ञान और शांति की अदभुत अनुभूति होती है।जोकि हमारे जीवन को सकारात्मक ऊर्जा से भर देती है। एक बार मन आत्मा में लीन हो गया तो कोई भी भारी दुख या लालच इसे हिला नहीं सकता।
संजय गोविंद खोचे