अनेक बोलियां अपनी-अपनी संस्कृतियों को समेटे भारत देश की धरोहर हैं – डॉ.साधना बलवटें

‌हमारे यहाँ अनेक बोलियां बोली जाती हैं पश्चिम हिंदी और पूर्वी हिंदी के परिवार की अपनी अपनी अलग बोलियां हैं। पश्चिमी हिंदी में मुख्यतः खड़ी बोली सहित बांगरू यानी हरियाणवी, ब्रजभाषा कन्नौजी और बुंदेली प्रमुख हैं। पूर्वी हिंदी में अवधी, बघेली छत्तीसगढ़ी प्रमुख रूप से आती हैं इनकी अनेक उप बोलियाँ हमारे यहाँ मौजूद हैं। राजस्थानी मेवाती मालवी, निमाड़ी बांगरू हरियाणवी भोजपुरी मगही मैथिली। पहाड़ी बोलियों में गढ़वाली कुमाऊनी अनेक बोलियां अपनी-अपनी संस्कृतियों को समेटे भारत देश की धरोहर हैं। इसके अतिरिक्त भी ना जाने कितनी बोलियां हैं जो हमारे वनवासी क्षेत्रों में भी बोली जाती हैं। न जाने कितनी लुप्त हो गई और न जाने कितनी बोलियां लुप्त होने के कगार पर हैं। कहा जाता है कोस कोस पर पर बदले पानी चार कोस पर बानी।ये जो चार कोस पर जो बोली बदल जाती हैं वही हमारे भाषाई वैविध्य और समृद्धि का कारण है। अपनी बोली यानि अपनी मातृभाषा। माँ से अधिक क्या अपना होता है। जब हम अपना कहते हैं उस शब्द का अर्थ ध्वनित होता है अपनत्व से भरा और जब हम अपनी बोली की बात करते हैं, तब संपूर्ण आत्मीय वातावरण हमारे सामने उपस्थित हो जाता है, हम सबको अपनी बोली से अत्यधिक प्रेम होता है क्योंकि उस बोली में हमारे संस्कार है हमारी जीवन शैली है हमारा जीवन दर्शन है और सबसे अधिक और महत्वपूर्ण बात अपनी बोली में अपने अस्तित्व का गौरव है जो हमें किसी भी औपचारिक भाषा में नहीं मिलता है जीवन के सारे भावों को जिस सहजता से अपनी बोली में व्यक्त किया जा सकता है दुनिया की किसी अन्य भाषा में उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता उदाहरण के लिए एक भाई का अपने बहन के प्रति प्रेम अपनी बोली में सहज व्यक्त होता है। जैसे फोन पर अपनी बहन का नंबर देखते ही वह हाय हेलो नहीं कहत यदि बुंदेली बोलता है तो सीधे कहेगा “हां बिन्ना”। मालवा निमाड़ का है तो सीधे कहेंगा “पायं लागूं बेन” यही बात बहन जी नमस्ते, चरण स्पर्श में कहे तो इसमें सम्मान तो बहुत है मगर वह प्यार वह आत्मीयता नहीं है। हमारी बोलियाँ कितनी सहज सरल और निश्छल हैं। औपचारिक भाषा में वह निश्छलता आत्मीयता अपनापन नहीं मिलता अपनी बोली अपने अस्तित्व की अनुभूति कराती हैं। अस्तित्व जो हमे पहचान देता है। हमारे होने का एहसास हमें हमारी बोलियां कराती हैं, वे बोलियाँ जिनमें रची बसी है हमारी लोक संस्कृति। हमारी बोलियों का साहित्य बहुत समृद्ध है हमारे लोकगीत, लोक कथाएं लोकनाट्य जिनसे हमारे जीवन का सीधा सीधा संबंध है उदाहरण के लिए पृथ्वीराज रासो में भी आल्हा उदल का उल्लेख मिलता है किंतु वही आल्हा हमारे गांव में हमारी बोली में गाया जाता हैं तो रोमांचित कर देता हैं क्योंकि हमारी बोली के साहित्य में हमारी मिट्टी की सुगंध है आत्मीयता है जो सीधे-सीधे लोक के ह्रदय को छूती है। अवधी भाषा में लिखा गया रामचरितमानस जैसा दुनिया में कोई दूसरा ग्रंथ नहीं है राम कथा संस्कृत में भी लिखी गई किंतु रामचरितमानस लोगों के अधिक करीब है।

गांव का साधारण से साधारण आदमी भी मानस की चौपाइयां पढ़ लेता है गुनगुना लेता हैः हिंदी में लिखे गए साहित्य में भी जिन कथाओं कविताओं में बोलियों का प्रयोग हुआ है, वे पाठकों के अधिक नजदीक है। फणीश्वरनाथ रेणु हो प्रेमचंद हो,वृंदावन लाल वर्मा हो रांगेय राघव हो।बोलियां हमारे बोल है, आवाज है जिसमें हमारे संस्कार ,लोकदर्शन, रीति रिवाज अनुभव से उपजे किस्से कहानियां कथाएं है। सबसे महत्वपूर्ण बात हमारी बोलियां हमारे गांव हमारे समाज को अपने प्यार से, अपनत्व से बांध कर रखती हैं उनके लिए कोई भी पराया नहीं होता।अतिथि देवो भवः की परम्परा हमारे गाँवों में आज भी जीवित है। अलग-अलग कार्यों के लिए अलग-अलग व्यवस्थाएं होने के बावजूद भी आपस में भेदभाव या घृणा नहीं है मतभेद मनभेद सब जगह होते हैं लेकिन संकट के समय में सब एक हो जाते हैं दरअसल भारत का मूल स्वभाव ही यह है क्योंकि भारत गांवों का देशहै। शहर के इस नकली जीवन में ,संकीर्णता में, प्रकृति का वह आनंद कहाँ ,जो घर के आंगन में खुले आसमान के नीचे लकड़ी के खाट पर कपड़े की सिली गुदड़ियो के बिस्तर पर लेट कर तारों को गिनने में, सप्त ऋषि, मंगल ध्रुव की पहचान करने में है इस आनंद की अनुभूति शहर के बंद एसी कमरों में कहां मिल पाती हैं जो प्यार बेन बिन्नू जीज्जी काकी में है जो अपनापन ताया काका मामा फूफा मैं है, अंकल आंटी में कहां है। दरअसल हम अपने अपने गांव से अलग-अलग कारणों से शहरों में आ तो गए हैं पर सारे रिश्ते सारे नाते उनका सारा अपनापन अपनी बोली तक गांव में छोड़ आए हैं और पराए अनजान लोगों के बीच अंकल आंटी सा जीवन व्यतीत करें रहे हैं। किंतु हमारी बोलियां हमारे जीवन से, हमारे मन से कभी दूर नहीं होती। जब हम कष्ट में हो में होते है तो सबसे पहले हमारे मुंह से माँ निकलता है यह बोलियां हमारी माँ है। मातृभाषा है। गांव हमारे पिता का घर है हमारे पूर्वजों का घर है भौतिक सुख की तलाश में हम भले ही निकल आए हैं किंतु दुख में माँ ही याद आती है, पिता ही याद आते हैं गांव याद आता है और हमारा दर्द हमारी बोली में ही प्रकट होता है कोरोना काल में हमने देखा लाखों मजदूर संकट की घड़ी में अपने गांव लौट आए हमारे यहाँ एक कहावत कही जाती हैं लड़कियां जब विवाह कर के किसी दूसरे शहर या गांव चली जाती हैं और अपने गांव का कोई परिचय यदि आ जाए मिल जाए तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता शायद इसीलिए वह कहावत बनी कि पीहर का का कुत्ता भी अपना लगता है। ये अपनत्व की अनुभूति का विषय है आत्मीयता का विषय है हम भी जब बाहर जाते है चाहे विदेश में हो कोई अपने देश का मिल जाता है तो बहुत प्रसन्नता होती है और फिर पता चले कि अरे वह तो हमारे प्रदेश का ही है तो हम तुरंत पूछने लगते हैं अच्छा प्रदेश में कहां के हो और यदि वो किस्मत से अपने ही गांव का निकल आए तो आपके आपकी प्रसन्नता की सीमा ही नहीं रहती फिर एफिल टावर के सामने भी आप खड़े हैं तो उससे कई कई गुना अधिक प्रसन्नता अपने गांव के व्यक्ति से मिलने की और अपनी बोली में बात करने की होती है। अपने गांव की मिट्टी में जो महक है अपनी बोली में अपनेपन की जो गमक है, अपने गांव के घर के आंगन में जो सुकून हैं, अपनी बोली के शब्दों में जो मिठास है, जो अपनापन हैं, संसार में उससे बड़ा सुख कहीं नहीं इसे आत्मा का सुख कहते हैं और इस आत्मा के सुख को पाने के लिए हम फिर जड़ों की ओर लौटने के लिए मजबूर होते हैं।

डॉ.साधना बलवटें