स्वतंत्र भारत के युग पुरुष हैं दीनदयाल उपाध्याय ।

पं दीनदयाल उपाध्याय जी की जयंती पर लेखरूपी श्रद्धांजलि।

सामान्य परिवार में जन्मे दीनदयाल जी का यदि उनके चरित्र एवं व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों के आधार पर एक ही वाक्य में परिचय देना हो तो वह श्रेष्ठ वाक्य है- “वे स्वतंत्र भारत के युग पुरुष हैं”।
जिस कालखंड़ में विश्व पूंजीवाद या समाजवाद के जटिल प्रश्न में जकड़ा हुआ था, तब दीनदयाल जी ने मानव, सृष्टि, समष्टि तथा राजनैतिक व्यस्थाओं की वास्तविकता पर गहन अध्ययन, चिंतन द्वारा संसार को एकात्म मानवदर्शन का वास्तविक और व्यावहारिक सिद्धांत प्रदान किया। यह देश का दुर्भाग्य ही था कि तत्कालीन राजनैतिक व्यवस्थाओं के कारण प्रतिकूलता तथा नकारात्मकता का वातावरण था। अन्यथा उस कालखंड में शीत युद्ध से ग्रस्त वैश्विक व्यवस्थाएं अपने राजनैतिक मोक्ष का मार्ग भारत के राजनैतिक दर्शन एवं चिंतन से ही प्राप्त करतीं, जिसके दीर्घकालिक परिणाम भारत के हित में होते।
बचपन से ही परिजनों की मृत्यु के आघात भी दीनदयाल जी के व्यक्तित्व को बुझाने में अक्षम रहे। जिन विषम परिस्थितियों में दीनदयाल जी का बचपन बीता, शिक्षण तथा विकास हुआ, वे एक सामान्य व्यक्ति के व्यक्तित्व को मुरझाने में सक्षम थीं परंतु संभवत: नियति ही दीनदयाल को पं. दीनदयाल उपाध्याय के रूप में विकसित करना चाहती थी।
यही कारण था कि छात्र जीवन में उनका संपर्क डॉ. हेडगेवार, नानाजी देशमुख और वीर सावरकर जैसे महान राष्ट्रभक्तों और विचारकों से हुआ तथा संघ दर्शन ने दीनदयाल जी को गहन विचारक तथा वास्तविकता से संबद्ध तत्व ज्ञानी के रूप में उत्कीर्ण किया।
संघ प्रचारक के रूप में उन्होंने अपने कृत्यों से स्वयं को एक सच्चे देशभक्त, कुशल संगठक, विषम परिस्थितियों में भी अर्जुन की भांति लक्ष्य साधक तथा मानवता के प्रति अति मानवतावादी व्यक्ति एवं विचारक के रूप में सिद्ध किया और ये ही भाव उनके राजनैतिक जीवन और दर्शन में भी अंतिम क्षणों तक स्थापित रहे।
दीनदयाल जी की रुचि राजनैतिक कार्य में कभी नहीं थी परंतु देश की राजनैतिक व्यवस्थाओं को दृष्टि में रख श्री गुरुजी ने डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के सहयोग के लिए जिन चंद प्रचारकों को भारतीय जनसंघ में भेजा था, दीनदयाल जी उनमें से एक थे। हालांकि दीनदयाल जी ने श्री गुरुजी के समक्ष राजनीति के प्रति अपनी वितृष्णा व्यक्त की थी। परंतु एक आदर्श स्वयंसेवक की भांति उन्होंने आज्ञा का शत-प्रतिशत पालन किया तथा देश की राजनीति में राष्ट्रप्रेम, न्याय तथा संघ विचार के आदर्श को स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह वह कालखंड था जब देश पर शासन कर रही नेहरू सरकार अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि तथा साम्यवादी सोवियत व्यवस्था से अपनी निकटता प्रदर्शित करने हेतु ऐसे अनगिनत निर्णय ले रही थी जिनसे राष्ट्रहित पर कुठाराघात हो रहा था। संभवत: श्री नेहरू ने नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्ति का सुंदर सपना भी संजो रखा था ।
कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाना तथा नेहरू जी का शेख अब्दुल्ला प्रेम और अब्दुल्ला की अब्दुल्लाशाही महत्वाकांक्षा तथा उसकी पोषक धारा 370 विनाश काले, विपरीत बुद्धि दर्शा रही थी। साथ ही नेहरू जी की विदेश नीति, विदेश नीति न होते हुए शून्य नीति बन गई थी। कश्मीर आंदोलन में कूदे भारतीय जनसंघ ने स्वतंत्रता पश्चात के प्रथम बलिदानी योद्धा के रूप में अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की आहूति दी। अब भारतीय जनसंघ का पूरा भार दीनदयाल जी के युवा कंधों पर था ।
दीनदयाल जी के नेतृत्व में अपने राष्ट्रवादी तथा समाजमैत्री चरित्र के चलते भारतीय जनसंघ का रेखाचित्र प्रत्येक चुनाव में वृद्धि दर्शा कर लोकप्रियता का प्रमाण प्रकाशित कर रहा था।
दीनदयाल जी कार्यकर्ताओं के राजनैतिक चरित्र के निर्माण को सदैव राजनैतिक निर्माण के ऊपर रखते थे तथा इसका प्रत्यक्ष प्रमाण उन्होने 1963 में तीन संसदीय सीटों पर हुए उप चुनाव में प्रदर्शित किया, जिसमें वे स्वयं जौनपुर संसदीय सीट से प्रत्याशी थे और जब कांग्रेस के उम्मीदवार द्वारा चुनावी जीत हेतु राजपूत जातिवाद पर कार्य करना शुरू किया गया, तब कुछ जनसंघ कार्यकर्ताओं ने ब्राह्मण वोटों के ध्रूवीकरण की योजना बनाई (क्योंकि दीनदयाल जी ब्राह्मण थे), तब दीनदयाल जी ने स्पष्ट शब्दों में कार्यकर्ताओं को सचेत किया कि यदि जातिवाद को आधार बनाया गया तो वे चुनाव से अपना नाम वापस ले लेंगे (क्योंकि दीनदयाल जी के समक्ष नैतिकता चुनावी जीत-हार से महत्वपूर्ण थी) । हालांकि वे जौनपुर से चुनाव हार गए पर नैतिकता जीत गई।
राष्ट्रहित एवं राष्ट्रवाद से समझौता न करना दीनदयाल जी के चरित्र का अभिन्न अंग था, जिसे उन्होंने कश्मीर आंदोलन, गोवा मुक्ति आंदोलन, बेरुबाड़ी हस्तांतरण, नेहरू-नून समझौता, भारत-पाकिस्तान युद्ध, भारत-चीन युद्ध के समय अपने कृत्यों से सिद्ध किया।
राष्ट्रीय अखंडता के प्रति दीनदयाल जी के विचार दलगत राजनीति से परे थे। 12 अप्रैल, 1964 को पं. दीनदयाल उपाध्याय तथा डॉ. राममनोहर लोहिया के भारत-पाकिस्तान महासंघ के विचार को व्यक्त करने वाला संयुक्त वक्तव्य इसी का उदाहरण है। यह भारत-पाकिस्तान महासंघ हमारे अखंड भारत के लक्ष्य से परे नहीं है। यह दीनदयाल जी की नैतिकता ही थी, जो विपरीत विचारधारा वाले दलों को भी उनके संग राष्ट्रहित के कार्यों से जोड़ देती थी। वे जीवन के अंतिम क्षणों तक अपने इसी चरित्र का प्रदर्शन करते रहे। 29, 30 और 31 दिसंबर, 1967 को हुए कालीकट अधिवेशन में देश के मुख्य विपक्षी दल, भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद को दीनदयाल जी ने अपनी इच्छा के विरुद्ध, संगठन हित में एक सामान्य कार्यकर्ता की भाँति स्वीकार किया।
11 फरवरी, 1968 की अशुभ रात्रि ने भारत से अपने युगपुरुष पं. दीनदयाल को हत्या कर छीन लिया।
दीनदयाल जी का जीवन डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के उन शब्दों को शत-प्रतिशत सिद्ध करता है, ”मुझे ऐसे दो दीनदयाल और दे दीजिए, मैं सारे देश का राजनैतिक नक्शा बदल दूंगा।”
पं दीनदयाल उपाध्याय जी की जयंती पर श्रद्धांजलि।

डॉ गुलरेज़ शेख