टीपू सुल्तान और छद्म-सेकुलरवाद – श्री बलवीर पुंज



कुछ दिनों से स्वयंभू सेकुलरिस्टों के कारण एडोल्फ हिटलर और टीपू सुल्तान चर्चा के केंद्र में है। इन दोनों ऐतिहासिक शख़्सियतों में दो विशेष समानता है। पहली- टीपू और हिटलर ने अपने-अपने शासनकाल में एक विशेष संप्रदाय को शिकार बनाया। और दूसरी- दोनों ने ही ब्रितानियों के विरुद्ध संघर्ष किया। अब इस पृष्ठभूमि में ऐसा क्यों है कि जहां भारत में हिटलर की पहचान क्रूर शासक की है, वही टीपू सुल्तान को नायक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है? इस प्रश्न के गर्भ में कर्नाटक की जद(स)-कांग्रेस सरकार की वह हालिया घोषणा है, जिसमें 10 नवंबर को प्रदेश में मैसूर के शासक टीपू सुल्तान की जयंती राजकीय स्तर पर मनाने का निर्णय किया गया है, जिसका भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित कई अन्य राष्ट्रवादी संगठन विरोध कर रहे है। वर्ष 2015-16 में तत्कालीन सिद्धरमैया सरकार ने इस कुत्सित परंपरा की शुरूआत की थी, जिसे मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारास्वामी भी आगे बढ़ा रहे है। हिटलर के अतिरिक्त नाथुराम गोडसे के कृत्य और विचार भी देश के एक वर्ग के लिए घृणा का पर्याय और उनके नाम पर बना मंदिर भी मानवता-बहुलतावाद विरोधी और फासीवाद का प्रतीक है। फिर ऐसा क्यों है कि देश के उसी समूह को इस्लामी आक्रांता तैमूर-लंग और टीपू सुल्तान जैसे शासकों में अपना नायक नजर आता है? भारत की मूल संस्कृति-परंपराओं और उसके प्रतीक-चिन्हों को जमींदोज करने में जिनकी भूमिका रही हो- क्या वह देश में किसी भी सम्मान के हकदार है?

क्या टीपू सुल्तान स्वतंत्र भारत के लिए कभी नायक हो सकता है? जिस बीभत्स गाजी मानसिकता के साथ तुर्क-मंगोली और समरकंद शासक तैमूर लंग 17 दिसंबर 1398 को अपनी विशाल सेना के साथ भारत में दाखिल हुआ- जिसमें उसने हजारों हिंदुओं का नरसंहार किया, सैकड़ों को बंदी बनाकर उनका मतांतरण किया और लूटपाट के बाद कई मंदिरों को तोड़ दिया। यहां तक, दिल्ली में क्रूरता की सभी हदों को पार करने से पहले तैमूर अपनी सेना के साथ जिन-जिन मार्गों से गुजरा, वहां उसने अपने पीछे शवों के ढेर, अराजकता, अकाल और महामारी को छोड़ दिया- उसी विषैले चिंतन से टीपू सुल्तान भी ग्रस्त था। मैसूर पर टीपू सुल्तान का लगभग 17 वर्षों (दिसंबर 1782-मई 1799) तक राज रहा था। वाम इतिहासकारों ने ऐतिहासिक साक्ष्यों को विकृत कर टीपू सुल्तान की छवि एक राष्ट्रभक्त, स्वतंत्रता सेनानी और पंथनिरपेक्ष मूल्यों में आस्था रखने वाले महान शासक के रूप में गढ़ी है। यह सत्य है कि टीपू सुल्तान ने ब्रितानी साम्राज्य से लोहा लिया था। किंतु यक्ष प्रश्न यह है कि उसने ऐसा क्यों किया? यदि वाकई टीपू की मंशा औपनिवेशी ब्रितानियों को भारत से खदेड़ने की थी, तो उसने देश में अपना आधिपत्य स्थापित करने की कोशिश में लगी एक अन्य औपनिवेशी ताकत से सहायता क्यों ली?

क्या यह सत्य नहीं कि टीपू सुल्तान ने फ्रांसिसी शासक लुईस 16वें से सैन्य मदद की अपील की थी? 21 अप्रैल 1797 को टीपू द्वारा लिखा पत्र इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, जिसमें उसने लिखा था- ‘मैंने आपको लिखित में मित्रता प्रकट की है। मेरे दूतों ने मुझे जानकारी दी है, जिससे आप नाराज नहीं होंगे। निजाम, जोकि अंग्रेजों के एक अहम सहयोगी और मुगल शासक है, वह बहुत बीमार हैं और उनके स्वस्थ होने की कोई संभावना भी नहीं दिखती। निजाम के चारों पुत्र संपत्ति विवाद में उलझे हुए है, जिसमें से एक मेरा विश्वासपात्र है। ऐसे में भारत पर आक्रमण करने का यही उचित समय है।’ फ्रांस के साथ टीपू के पत्राचार लंदन स्थित इंडिया ऑफिस में संरक्षित हैं। टीपू ने इस देश में इस्लामी साम्राज्य कायम करने का सपना देखा था, जिसमें ब्रितानी अवरोधक बने हुए थे। अपने इसी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उसने फ्रांस के अतिरिक्त फारस, अफगानिस्तान, तुर्की और अन्य मुस्लिम देशों से सहायता भी मांगी थी। इन्हीं तथ्यों को वाम-इतिहासकार और स्वयंभू सेकुलरिस्ट अक्सर ब्रितानियों का झूठा प्रचार बताते है। टीपू सुल्तान के भ्रामक महिमामंडन की पृष्ठभूमि में- मैं उन पत्रों को उद्धृत करना चाहूंगा, जो टीपू ने अपने शासनकाल में सैन्य अधिकारियों को भेजे थे। इन सभी को इतिहासकार सरदार के.एम पनिक्कर ने लंदन स्थित भारत कार्यालय पुस्तकालय से प्राप्त किया था। अब्दुल कादिर को 22 मार्च 1788 को टीपू लिखता है, ‘12 हजार हिंदुओं (ब्राह्मण सहित) को इस्लाम से सम्मानित किया गया है। हिंदुओं के बीच इसका व्यापक प्रचार होना चाहिए। एक भी नंबूदिरी (ब्राह्मण) को बख्शा नहीं जाना चाहिए।’

इसी तरह 14 दिसंबर 1788 को कालीकट में अपने सेना प्रमुख को भेज पत्र टीपू ने लिखा था, ‘मैं अपने दो अनुयायी मीर हुसैन अली के साथ भेज रहा हूं। उनकी सहायता से, आपको सभी हिंदुओं को पकड़कर मारना है। जो लोग 20 वर्ष की आयु से कम है, उन्हे जेल में रख दिया जाए जबकि शेष 5,000 को पेड़ से लटकाकर मार दिया जाए। यह मेरा आदेश हैं।’ 21 दिसंबर 1788 को शेख कुतुब को चिट्ठी में टीपू ने लिखा, ‘242 नायर बंदी बनाकर भेजा जा रहा है। उन्हें उनके सामाजिक और पारिवारिक स्थिति के अनुसार वर्गीकृत करें, ताकि इस्लाम में मतांतरण के बाद पुरुषों और महिलाओं को पर्याप्त परिधान दिए जा सकें।’ 18 जनवरी 1790 को सैय्यद अब्दुल दुलाई पत्र में टीपू सुल्तान लिखता है, ‘पैगंबर साहब और अल्लाह के करम से कालीकट के सभी हिंदुओं को इस्लाम कबूल करवाया गया है। केवल कोचिन में कुछ छूट गए हैं, जिन्हें मैं जल्द ही मुसलमान बनाने के लिए संकल्पबद्ध हूं। इस लक्ष्य को प्राप्त करना मेरा जिहाद है।’ 19 जनवरी 1790 को बदरुज जुम्मन खान को भेजे पत्र में टीपू ने लिखा है, ‘क्या आपको पता नहीं कि मैंने हाल ही में मालाबार में बड़ी फतह हासिल की है और चार लाख से अधिक हिंदुओं को इस्लाम में मतांतरित किया है।’ क्या पत्रों की श्रृंखला से टीपू सुल्तान के वास्तविक चरित्र और उसके विषाक्त चिंतन का आभास नहीं होता है?

टीपू सुल्तान के पुत्र गुलाम मोहम्मद और मुस्लिम इतिहासकार किरमानी के ब्यौरों से भी पता चलता है कि टीपू को नगरों के ‘काफिर’ नामों से भी घृणा थी। इसी कारण उसने मंगलापुरी (मंगलौर) का नाम बदल कर जलालाबाद किया। इसी तरह कन्नौर को कुषाणाबाद, वैयपुरा (बेपुर) को सुल्तानपट्टनम, मैसूर को नजाराबाद, गुटी को फैज-हिसार, रत्नागिरी को मुस्तफाबाद, डिंडीगुल को खलिकाबाद और कोझिकोड को इस्लामाबाद बना दिया। विलियम लोगान की पुस्तक ‘मालाबार मैन्युअल’ में टीपू की बर्बरता और चर्च-मंदिरों के ध्वंस का विस्तार से उल्लेख है। कोझिकोड में भी टीपू ने जमकर रक्तपात मचाया। जर्मन मिशनरी गुंटेस्ट ने लिखा है, ‘अपने 60,000 बर्बर सैनिकों के साथ टीपू ने सन् 1788-89 में कोझिकोड पर आक्रमण किया और पूरे नगर को जमींदोज कर डाला। मैसूर की बर्बरता को बयान करना संभव नहीं है।’ कुर्ग में टीपू सुल्तान ने गैर-मुस्लिमों पर जो कहर ढाया, उसकी दूसरी मिसाल इतिहास में दुर्लभ है- यहां उसने हजारों हिंदुओं को इस्लाम कबूल करने के लिए विवश किया। टीपू सुल्तान का मत था कि यदि सभी एक ही मजहब के मानने वाले हो जाएंगे तो एकता बनेगी, जिससे ब्रितानियों को हराना आसान होगा। अब क्या इस आधार पर हिटलर द्वारा यहूदियों के नरंसहार को उचित ठहराया जा सकता है? यदि टीपू सुल्तान को समाज के एक वर्ग द्वारा राष्ट्रभक्त और स्वतंत्रता सेनानी केवल इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि उसने अंग्रेजों से मोर्चा लिया था- तब एडोल्फ हिटलर को क्यों गाली दी जाती है? यदि देशभक्ति इस देश की बहुलतावादी सनातन संस्कृति, उसके मान-बिंदुओं और परंपराओं को सम्मान देने का पर्याय है, तो नि:संदेह उस कसौटी पर आततायी टीपू सुल्तान को राष्ट्रभक्त और सहिष्णु कहना वास्तविक राष्ट्रीय नायकों- जिसमें सिख गुरुओं की परंपरा, मराठा, राजपूत, स्वामी विवेकानंद, गांधीजी और सरदार पटेल जैसे महापुरुष भी शामिल है- उन सभी का अपमान है।