संघ के तृतीय सरसंघचालक बालासाहब का पूरा नाम था मधुकर दत्तात्रय देवरस। उनका जन्म 11 दिसंबर 1915 को नागपुर में हुआ। पिता दत्तात्रय भैय्याजी देवरस महसूल विभाग में शासकीय अधिकारी थे। उनके पांच बेटे और चार बेटियों में बालासाहब चौथी संतान थे। बालासाहब को घर में सब लोग बाळ (बाल) कहा करते थे। इसीलिए आगे चलकर बाला साहब नाम प्रचलित हुआ। देवरस घराना मूलतः आंध्रप्रदेश के रहने वाले थे, मूल नाम देवराजू के कारण नागपुर आने पर देवरस हो गए। डाक्टर जी ने 1925 में संघ की शाखा प्रारंभ की। बारह वर्ष की आयु के “बाल” इस शाखा में 1927 से ही स्वयंसेवक बनकर जाने लगे। इस प्रकार बाल्यकाल से ही बालासाहब का संघ से संपर्क हो गया, जो जीवन भर चला। कई बार वे अपने साथ दलित स्वयंसेवक बंधुओं को भी घर ले जाते और माता से कहते, “मेरे ये मित्र भी मेरे साथ ही रसोई में ही भोजन करेंगे।” माँ ने कभी ना नहीं कहा। उन दिनों के सनातनी वातावरण में यह एक अपवाद ही था।
देवरस परिवार संपन्न था। नागपुर जिले के चिखली में और मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले के कारंजा में इस परिवार की काफी खेती थी। 1931 में बाल ने मेट्रिक परिक्षा उत्तीर्ण की। संस्कृत और तत्वज्ञान विषय लेकर 1935 में बी.ए. की परिक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। 1937 में एल.एल.बी की परीक्षा भी विशेष गुणवत्ता के साथ उत्तीर्ण की। छोटे भाई भाऊराव भी अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के तथा पढाई में अब्बल रहने वाले छात्र थे। पिता जी की इच्छा थी कि दोनों भाई आई.सी.एस. परीक्षा उत्तीर्ण कर शासकीय सेवा में बड़े अधिकारी बनें। किन्तु ऐसा हुआ नहीं। एक ही परिवार के ये दोनों भाई संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता बने, यह अद्भुत संयोग रहा। कुशाग्र बुद्धि के बाल स्वयंसेवकों पर डाक्टर जी का विशेष ध्यान रहता था। उनमें से ही चुनिन्दा स्वयंसेवकों को वे विशेष कार्य सोंपते जाते थे। बाला साहब भी क्रमशः गटनायक, गणशिक्षक, शाखा के मुख्य शिक्षक, बाद में कार्यवाह आदि के अनुभव प्राप्त करते गए। इतवारी शाखा उन दिनों सबसे कमजोर मानी जाती थी, किन्तु जैसे ही बालासाहब उस शाखा के कार्यवाह बने, एक वर्ष में ही वह नागपुर की सबसे अग्रणी शाखा हो गई। शाखा में बाला साहब का अनुशासन अत्यंत कडा रहता था। दण्डयोग अथवा संचलन में किसी से थोड़ी भी गलती होने पर तुरंत पैरों में चपाटा लगता था। परन्तु स्वभाव उतना ही स्नेहमय था। इस कारण स्वयंसेवक उनसे कभी नाराज नहीं होते थे।
उनके बड़े भाई के एक मित्र थे, बच्छराज व्यास। ये सारे लोग बैठकर एक साथ कैरम खेलते थे, किन्तु शाखा समय होते ही बालासाहब और भाऊराव जी खेल छोड़कर चल देते थे। एक दिन बच्छराज भी उनके पीछे पीछे यह देखने को चल दिए कि ये लोग आखिर जाते कहाँ हैं ? उस दिन ही उन्हें भी संघकार्य की जानकारी मिली और वे भी शाखा जाने लगे। आगे चलकर बच्छराज व्यास राजस्थान में संघ के प्रचारक बने। 1937 के पुणे संघशिक्षा वर्ग में बालासाहब मुख्य शिक्षक बनकर गए। उस समय उनकी आयु मात्र 22 वर्ष थी। उन्होंने यह दायित्व उत्तम प्रकार से निर्वाह किया। शिक्षा वर्ग से लौटने के बाद उन्हें नागपुर का कार्यवाह नियुक्त किया गया। 1939 में की ऐतिहासिक सिंदी बैठक में बाला साहब देवरस भी उपस्थित रहे थे। उसके बाद उन्हें प्रचारक के रूप में कलकत्ता भेजा गया। पिताजी नाराज हुए किन्तु माताजी ने स्थिति संभाल ली। डाक्टर जी का स्वास्थ्य अधिक खराब होने के चलते बालासाहब को 1940 में कलकत्ता से वापस बुला लिया गया। देशभर के विभिन्न स्थानों पर प्रचारक भेजने की जिम्मेदारी नागपुर शाखा की ही सर्वाधिक रहती थी, स्वयंसेवक को उस हेतु गढ़ना, किसे कहाँ भेजना यह जिम्मेदारी बाला साहब उत्तम रीति से संभालते थे। डाक्टर जी के निर्देश पर 1937 से 1940 के बीच गुरूजी संघ कार्य में पूरी तरह डूब गए थे। उस समय के नवयुवक कार्यकर्ताओं को नजदीक से देखकर उनकी क्षमता व योग्यताओं का आंकलन श्री गुरूजी ने बहुत बारीकी से किया था। डाक्टर जी का अनुशरण किसने कितनी मात्रा में किया है, यह बात भी गुरूजी के निरीक्षण में आई होगी। इसी भाव को प्रदर्शित करते हुए श्रीगुरूजी ने 1943 के पुणे संघ शिक्षा वर्ग में बाला साहब का परिचय करते हुए कहा कि, “आप लोगों में अनेक स्वयंसेवक ऐसे होंगे जिन्होंने डाक्टर जी को नहीं देखा होगा। उन्हें बालासाहब की ओर देखना चाहिए, डाक्टर जी कैसे थे, यह उनको देखकर पता चल जाएगा।
1944 – 45 की घटना है। एक उत्सव में भाग लेने के लिए गुरूजी तांगे में बैठकर रेशमबाग संघ स्थान की ओर जा रहे थे। तीन चार स्वयंसेवकों के साथ बालासाहब उसी कार्यक्रम के लिए पैदल जाते उनको दिखाई दिये। गुरूजी ने अपने साथ बैठे कृष्णराव मोहरिल से कहा कि “असली सरसंघचालक पैदल जा रहे हैं, और नकली तांगे में बैठकर।” अपने से आयु में नौ वर्ष छोटे, केवल अट्ठाईस उन्तीस वर्ष के नवयुवक के लिए इस प्रकार के उदगार व्यक्त करना जहां एक ओर गुरूजी के मन की उदारता दिखाई देती है. वहीं दूसरी ओर बालासाहब की योग्यता व गुणवत्ता भी प्रगट होती है। 1947 में हुए पारडी के शिविर में बालासाहब का बौद्धिक वर्ग था। उनका परिचय कराते हुए गुरूजी ने कहा, “जिनके कारण मैं सरसंघचालक के रूप में जाना जाता हूँ, वे हैं ये बालासाहब देवरस।” 1960 में नागपुर के कार्यवाह, 1962 में सहसरकार्यवाह रहने के उपरांत सर कार्यवाह भैय्याजी दाणी के निधन के पश्चात 1965 में बाला साहब को उनके स्थान पर सरकार्यवाह नियुक्त किया गया। इसके पश्चात एक बैठक में बोलते हुए गुरूजी ने कहा कि, “एक साथ दो सरसंघचालक नहीं रह सकते, इस कारण बाला साहब सरकार्यवाह हैं।” उस समय तक गुरूजी को सरसंघचालक बने 25 वर्ष व्यतीत हो चुके थे और पूरे देश में उनकी प्रतिष्ठा व ख्याति थी। इसके बाद भी बालासाहब के प्रति उनकी यह धारणा व आत्मीयता थी | बाला साहब के मन में भी गुरूजी के प्रति कितनी अपार श्रद्धा थी, इसका प्रगटीकरण गुरूजी के मासिक श्राद्ध के अवसर पर उन्हें आदरांजली देते समय हुआ। बाला साहब ने उस अवसर पर कहा कि, “गुरूजी के नेतृत्व को एक मांगल्य का स्पर्श था। गुरूजी के समर्थ नेतृत्व के नीचे मैं सरकार्यवाह के पद पर रहते हुए एक व्यवस्थापक के रूप में कार्य कर रहा था।”
सम्पूर्ण क्रान्ति की घोषणा और आपातकाल
18 मार्च 1974 को जयप्रकाश नारायण जी ने सम्पूर्ण क्रान्ति की घोषणा की। जयप्रकाश नारायण जी के नेतृत्व में खड़े हुए इस आन्दोलन को विद्यार्थी परिषद् ने पूर्ण सक्रिय सहयोग प्रदान किया। बिहार और गुजरात इन दो राज्यों में विद्यार्थी वर्ग ने कांग्रेस सरकार के विरुद्ध आन्दोलन प्रारम्भ किया। अनेक वर्षों तक राजनीति से प्रथक रहे जयप्रकाश जी द्वारा आन्दोलन का नेतृत्व स्वीकार किये जाने के कारण उसे राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त हो गई। 1 दिसंबर 1974 को दिल्ली में संघ के एक समारोह को संबोधित करते हुए बाला साहब ने कहा, “ एक अन्धकार से पूर्ण और गंभीर ऐसे क्षण में जयप्रकाश जी के रूप में एक संत देश की रक्षा करने के लिए आगे आया है।” जयप्रकाश जी का विरोध मुख्यतः केंद्र शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार से था। 1975 के प्रारम्भ से देश का वातावरण गरमाने लगा। जयप्रकाश जी को समर्थन देने के लिए सारे विरोधी राजनैतिक दलों ने एकत्रित होकर संसद के सामने प्रदर्शन किया। दिल्ली में तीन से पांच मार्च तक भारतीय जनसंघ का अधिवेशन हुआ, जिसमें भाषण देते हुए जयप्रकाश जी ने कहा कि, “पिछले एक वर्ष से मैं संघ और जनसंघ के निकट संपर्क में हूँ। मेरे अपने अनुभव से मैं कहता हूँ कि साम्यवादियों और इंदिरा गांधी के समर्थकों द्वारा उन पर तानाशाही और प्रतिगामी होने के जो आरोप लगाए जाते हैं, वे पूर्णतः गलत हैं। यदि जनसंघ जातिवादी है तो मैं भी जातिवादी हूँ।”
जयप्रकाश जी द्वारा की गई सम्पूर्ण क्रान्ति की घोषणा के एक वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर 18 मार्च 1975 को पटना विधानसभा के सामने विशाल प्रदर्शन हुआ। उस दौरान पुलिस द्वारा चलाई गई गोलियों से 100 व्यक्ति मारे गए। सरकार ने 20 हजार लोगों को गिरफ्तार कर लिया। 12 जून को हुए गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई। एक सौ बयासी स्थानों में से कांग्रेस को बहत्तर और जनता पार्टी को एक सौ दस स्थान मिले।
12 जून को ही राजनारायण द्वारा इंदिरा गांधी के चुनाव को चुनौती देने वाले मुकदमे का परिणाम सामने आया। न्यायाधीश जगमोहनलाल ने इंदिराजी का चुनाव अवैध घोषित कर अगले छः वर्षों तक उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इंदिराजी ने बीस जून को इस निर्णय के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की। 24 जून को मोरारजी भाई के निवास पर विरोधी दलों की बैठक हुई, जिसमें प्रधानमंत्री पद से इंदिरा जी के त्यागपत्र की मांग की गई, तथा देशव्यापी सत्याग्रह का निर्णय लिया गया। इस सत्याग्रह की मुहीम चलने के लिए दूसरे दिन लोक संघर्ष समिति की स्थापना की गई। मोरार जी भाई अध्यक्ष, अशोक मेहता कोषाध्यक्ष, नानाजी देशमुख सचिव मनोनीत हुए। उसी दिन सायंकाल दिल्ली के रामलीला मैदान पर हुई विराट जनसभा में जयप्रकाश जी ने शांतिपूर्ण सत्याग्रह का आह्वान किया। अपने भाषण में उन्होंने सेना के जवानों का भी आह्वान किया कि वे अवैध रूप से सत्ता में बैठी सरकार की आज्ञा न मानें। यह सीधे सीधे इंदिरा जी को दी गई चुनौती थी, जिसके पीछे न्यायालय का निर्णय खडा था। इंदिराजी किसी भी कीमत पर सत्ता छोड़ना नहीं चाहती थीं। दूसरे दिन सुबह इंदिराजी ने पूरे देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। विरोधी दलों के सारे नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और समाचार पत्रों पर सेंसरशिप लगा दी। देश में कहाँ क्या चल रहा है, यह पता चल पाना देशवासियों को असंभव हो गया। पुलिस बिना पूछताछ किये, किसी को भी गिरफ्तार कर सकती थी। परिणाम यह हुआ कि राजनैतिक घटनाक्रम पर सार्वजनिक रूप से कुछ बोलना ही बंद हो गया।
संघ प्रेरित सत्याग्रह
तीस जून को बाला साहब गिरफ्तार कर लिए गए और चार जुलाई को संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। बाला साहब के गिरफ्तार होते ही संघ के अनेक ज्येष्ठ कार्यकर्ता भूमिगत हो गए। बालासाहब को पुणे के यरवडा कारागृह में रखा गया। उनके साथ संपर्क रखना सरल हो, इस कारण मुम्बई को अगले नीति निर्धारण का केंद्र बनाया गया। देश को चार भागों में बांटकर चार बरिष्ठ प्रचारकों को उनकी जिम्मेदारी सोंपी गई। लोक संघर्ष समिति के साथ संपर्क बनाए रखने का काम मोरोपंत पिंगले को दिया गया। दक्षिण विभाग के प्रमुख यादवराव जोशी, पश्चिम के मोरोपंत पिंगले, उत्तर के राजेन्द्र सिंह और पूर्व विभाग के भाउराव देवरस ऐसा विभाजन किया गया। माधवराव मुले पर आन्दोलन की प्रमुख जिम्मेदारी सोंपी गई। प्रदेशों की राजधानियों, जिला, तहसील और गाँव गाँव तक सन्देश पहुंचाने की व्यवस्था स्थापित हुई। देश में कहाँ क्या हो रहा है, उसकी जानकारी येरवडा कारागृह में बालासाहब को सप्ताह में दो बार मिल ही जाती थी। विरोधी दलों के नेताओं के साथ संपर्क बनाए रखने का कार्य रामभाऊ गोडबोले को दिया गया था। एकनाथ जी रानाडे को शासकीय अधिकारीयों के साथ चर्चा करने की जिम्मेदारी सोंपी गई। केन्द्रीय समिति ने प्रारम्भ में कुछ निर्णय लिए। खेलकूद या अन्य गतिविधियों के नाम पर स्वयंसेवकों का एकत्रीकरण, जानकारी देनेवाले पत्रकों का स्टेंसिल व डुप्लीकेटिंग मशीन की मदद से स्वयं निर्मिति व उन्हें सर्वत्र पहुंचाकर बंटवाना, भिन्न भिन्न लोगों से मिलकर आन्दोलन की रूपरेखा समझाना और राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह की मुहीम चलाना आदि निर्णय लिए गए। आपातकाल घोषित होने के तुरंत बाद इंग्लेंड में “इंडियन्स फॉर डेमोक्रेसी” के नाम से स्थापित की गई। सवा वर्ष बीत जाने के बाद अमेरिका में “फ्रेंड्स ऑफ़ इंडिया सोसायटी इंटर्नेशनल” नाम से एक और संस्था गठित की गई। इन संस्थाओं द्वारा भारत की परिस्थिति की जानकारी विदेशों में सर्वत्र पहुंचाना, और भारत में चल रहे आन्दोलन के लिए विदेशों से आर्थिक सहायता प्राप्त करने का कार्य बखूबी किया गया। 14 नवम्बर 1975 से देशव्यापी सत्याग्रह प्रारम्भ हुआ। सभी स्वयंसेवकों ने इस सत्याग्रह में अपनी अपनी भूमिका निभाई | हजारों की संख्या में सत्याग्रह करने वाले थे तो पीछे से उनके परिवार की चिंता करने वाले कार्यकर्ता भी। एक डाक्टर स्वयंसेवक दस सत्याग्रही परिवारों को ढाई ढाई हजार रुपये पूरे समय पहुंचाते रहे | ऐसे अनेक व्यवसाई थे। आपातकाल के दौरान हजारों स्वयंसेवकों ने कारावास स्वीकार किया | इतना ही नहीं तो उनमें से 100 से अधिक स्वयंसेवकों की उस दौरान बीमारी के कारण मृत्यु भी हो गई।
28 अगस्त 1975 को नानाजी देशमुख बंदी बना लिए गए। उनके स्थान पर रवीन्द्र वर्मा लोक संघर्ष समिति के कार्यवाह बने। आगे उनके गिरफ्तार होने पर दत्तोपंत ठेंगडी ने यह जिम्मेदारी उठाई। प्रभाकर शर्मा नामक एक सर्वोदई कार्यकर्ता ने आपातकाल के विरोध स्वरुप आत्मदाह कर लिया। जयप्रकाश जी गंभीर रूप से बीमार हो गए, इस कारण उन्हें छोड़ दिया गया। मोरारजी भाई और अटलबिहारी भी छूट गए, परन्तु निवास स्थान पर पुलिस का पहरा रहा। 18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी पर सन्देश के माध्यम से मार्च में चुनाव कराने की घोषणा कर दी। बीस जनवरी को विरोधी दलों ने एकत्रित होकर जनता पार्टी की स्थापना की। सोलह से बीस मार्च को हुए चुनावों में जनता पार्टी विशाल बहुमत के साथ विजई हुई। चुनाव परिणाम घोषित हो जाने के बाद इक्कीस मार्च को राष्ट्रपति बी.डी. जत्ती ने आपातकाल हटाये जाने की घोषणा की। दूसरे दिन संघ पर से प्रतिबन्ध हटा लिया गया।
कारावास से छूटने के पश्चात पूरे देश में बाला साहब का अभूतपूर्व स्वागत हुआ। आपातकाल के दौरान अपने पर हुए अन्याय को लेकर कोई कटुता न फैले यही उनके उदगार थे – “सारा कुछ भूल जाएँ, और भूल करने वालों को क्षमा कर दें।” आपातकाल के दौरान संघ कार्य के सम्बन्ध में लिखते हुए “दि इंडियन रिब्यू” पत्रिका के सम्पादक एम.सी. सुब्रमण्यम ने लिखा, “आपातकाल के विरोध में जिन्होंने संघर्ष किया, उनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख है। इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि सत्याग्रह की योजना बनाना, सम्पूर्ण भारत में संपर्क बनाये रखना, चुपचाप आन्दोलन के लिए धन एकत्रित करना, व्यवस्थित रीति से आन्दोलन के पत्रक सब दूर पहुंचाना, और बिना दलीय या धार्मिक भेदभाव के काराग्रह में बंद लोगों के परिवारों की आर्थिक मदद करना, इस सम्बन्ध में संघ ने स्वामी विवेकानंद के उदगार सत्य कर दिखाए। स्वामी जी ने कहा था कि, देश में सामाजिक और राजनैतिक कार्य करने के लिए सर्वसंग परित्यागी सन्यासियों की आवश्यकता होती है। आपातकाल के दौरान संघ के कार्यकर्ताओं के साथ कार्य करने वाले विभिन्न दलों के सहयोगी, इतना ही नहीं तो संघ से शत्रुता रखने वाले नेताओं ने भी संघ के लोगों के प्रति गौरव और आदर के उदगार व्यक्त किये हैं।